खीरे की खेती कैसे करें

खीरे की खेती






खीरा एक सलाद के लिए मुख्य फसल समझी जाती है । इसकी खेती सम्पूर्ण भारतवर्ष के सभी भागों में की जाती है । यह फसल अधिकतर सलाद व सब्जी के लिये प्रयोग की जाती है । खीरे की फसल वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतु में बोई जाती है । इस फसल के फलों को अधिकतर हल्के भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं जिसमें कि पानी की मात्रा अधिक होती है । खीरा स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद रहता है । खीरे के सेवन से पाचन-क्रिया ठीक रहती है । इसका प्रयोग होटल, ढाबे तथा शहरों में अधिकतर खाना खाने के साथ सलाद के रूप में करते हैं ।



खीरे के सेवन करने से मनुष्य के शरीर को पानी की पूर्ति होती है । इसके प्रयोग से पोषक तत्त्वों की भी पूर्ति होती है । इस प्रकार से खीरे के अन्दर निम्न पोषक तत्व होते हैं । जैसे- पोटेशियम, सोडियम, कैल्शियम, खनिज पदार्थ, कैलोरीज, फॉस्फोरस, विटामिन ‘सी’ तथा अन्य कार्बोहाइड्रेट्‌स ।


खीरे की खेती के लिए आवश्यक भूमि व जलवायु  (Soil and Climate For Kheera Kheti)


यह फसल एक गर्मतर जलवायु में पैदा होने वाली फसल है । इसलिए इसकी बुवाई कम तापमान पर नहीं करनी चाहिए तथा कम तापमान पर बीज का अंकुरण सन्तोषजनक नहीं हो पाता । इसलिये अच्छे अंकुरण के लिये बीज की बुवाई 18 डी०से० ग्रेड से 25 डी०से० ग्रेड के बीच करनी अच्छी होती है और 10 डी०से० ग्रेड तापमान से नीचे बीज नहीं होना चाहिए ।


खीरे की फसल लगभग सभी प्रकार की भूमि में पैदा की जा सकती है । लेकिन फिर भी सबसे उत्तम बलुई दोमट भूमि रहती है । सफल फसल उत्पादन के लिये जल-निकास का भी उचित प्रबन्ध होना अति आवश्यक है । जमीन का पी. एच. मान 5.5 से 6.5 तक अनुकूल रहता है ।


खीरे की खेती के लिए खेत की तैयारी (kheera Ki Kheti Ke Liye Khet Ki Taiyari) 


खीरे की फसल की तैयारी के लिए कोई खास तैयारी नहीं करनी पड़ती क्योंकि तैयारी भूमि की किस्म के ऊपर निर्भर होती है । बलुई भूमि के लिये अधिक जुताई की आवश्यकता नहीं होती । इसलिये 2-3 जुताई करनी चाहिए तथा पाटा लगाकर क्यारियां बना लेनी चाहिए । भारी-भूमि की तैयारी के लिये अधिक जुताई की भी आवश्यकता पड़ती है ।


बगीचों के लिये भी यह फसल उपयोगी है जोकि आसानी से बोई जा सकती है । अधिक लम्बी बेल व बढ़ने वाली किस्म को चुनना चाहिए तथा अपने खेत को ठीक प्रकार से खोदकर समतल करना चाहिए और देशी खाद मिला देना अच्छा होता है । खेत में छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर तैयार करना चाहिए ।


गोबर की खाद एवं रासायनिक खाद (Manure and Fertilizers)


खीरे की फसल के लिये देशी खाद की 20-25 ट्रैक्टर-ट्रौली प्रति हैक्टर की दर से मिट्टी में मिलाना चाहिए । यह खाद खेत की जुताई करते समय ही मिला देना चाहिए तथा रासायनिक खादों की अलग मात्रा अच्छे उत्पादन के लिये नत्रजन  55-60 किग्रा., 50 किग्रा. फास्फेट तथा 90 किग्रा. पोटाश की मात्रा प्रति हैक्टर की दर से डालना चाहिए तथा नत्रजन की आधी मात्रा फास्फेट व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पहले तैयारी के समय मिट्‌टी में मिला देनी चाहिए । शेष नत्रजन की मात्रा बुवाई के 30-45 दिन के बीच पौधों में छिटकना चाहिए ।


खीरे की खेती को बगीचे में भी बोया जाता है । खीरा के पौधे के लिये यदि हो सकता है तो राख की मात्रा पौधों पर व भूमि में डालनी चाहिए । पौधों की पत्तियों पर राख बुरकने से कीड़े आदि नहीं लगते हैं । इस प्रकार से 4-5 टोकरियां गोबर की खाद व रासायनिक खाद यूरिया 150 ग्राम, 200 ग्राम डाई अमोनियम फास्फेट तथा 250 ग्राम पोटाश 8-10 वर्ग मी. की दर से मिट्टी में भली-भांति मिलाना चाहिए । यूरिया की मात्रा को पौधों में भूमि के ऊपर पौधों से अलग लगाना चाहिए तथा खाद के बाद पानी भी लगाना जरूरी होता है ।


खीरे की उन्नतशील किस्में (Improved Varieties of Kheera)


खीरे की मुख्य जातियों को बोने की सिफारिश की जाती है जो निन्नलिखित है–


(1) पोइन्सेट (Poinsette)- यह किस्म अधिक उपज देने वाली तथा दोनों मौसम में बोई जाती है । फलों की तुड़ाई बुवाई से 60 दिन बाद हो जाती है । खीरे के फलों का रंग गहरा हरा, छोटे आकार के तथा सिरों से गोल होते हैं । इस किस्म पर बीमारियों का प्रकोप नहीं होता है ।


(2) जापानी लौंग ग्रीन (Japanese Long Green)- यह किस्म सबसे शीघ्र तैयार होने वाली है जो 45 दिन में खाने योग्य हो जाती है । फलों का रंग हल्का सफेद, हरा तथा आकार में 25-35 सेमी. लम्बे होते हैं । गूदा हल्के हरे रंग का, खाने में रवेदार तथा स्वादिष्ट होते हैं । पैदावार भी अधिक होती है 


(3) स्ट्रीट एइट (Straight Eight)- यह किस्म भी शीघ्र पकने या तैयार होने वाली है | गूदा हल्का सफेद तथा फल मध्यम आकार के लम्बे होते हैं । पतलें, सीधे, हरे रंग के फल होते हैं ।


खीरे की बुवाई का समय एवं ढंग (Method and Time of Sowing of Kheera)


खीरे की बुवाई का समय उत्तरी भारत व मैदानी क्षेत्रों में अगेती फसल जनवरी तथा पिछेती मार्च के महीने के अन्त तक बोई जाती है और अगली फसल जो वर्षा


ऋतु की फसल यानि खरीफ की बुवाई जून-जुलाई के अन्त तक की जाती है अर्थात् जायद या वसन्त ऋतु एवं वर्षा ऋतु या खरीफ की फसल को समय-समय पर बोया जाता है । पहाड़ी क्षेत्रों में अप्रैल के महीने में बोते हैं ।


बुवाई की विधि मुख्य रूप से दो तरीकों द्वारा की जाती है ।


प्रथम, क्षेत्र के आधार पर बीज को हाथों द्वारा बोया जाता है । यह विधि गहरी पड़ती है तथा कम क्षेत्र के लिये प्रयोग करते हैं ।


दूसरा, कूड बनाकर बोया जाता है । समय के अनुसार दूरी रखते हैं । जायद या ग्रीष्म ऋतु की फसल की दूरी बीज से बीज 75 सेमी. पर तथा कतारों या कूड़ से कूड़ की दूरी 120 सेमी. रखते हैं । खरीफ की फसल की दूरी बीज से बीज की 90 सेमी. तथा कूड़ से कूड़ की दूरी 1मी. ½ सेमी. रखना उचित होता है । बीजों को एक स्थान पर 2-3 डालना चाहिए साथ-साथ बीजों की गहराई 4-6 सेमी. रखनी चाहिए अधिक गहरा बीज गल-सड़ सकता है । बीज को अंकुरण के लिए नमी पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए ।

बीज की दर एवं सिंचाई (Seeds Rate and Irrigation)


बीज की मात्रा मौसम के आधार पर निर्धारित की जाती है । जायद के लिये शुद्ध बीज की मात्रा 3-4 किलो प्रति हैक्टर तथा खरीफ की फसल के लिये 6-7 कि.ग्रा./हैक्टर की दर से आवश्यकता होती है । ग्रीष्म ऋतु की फसल के लिये अधिक बीज की जरूरत होती है क्योंकि तापमान व मौसम के कारण अंकुरण शत-प्रतिशत नहीं हो पाता इसलिये अधिक बीज की मात्रा की आवश्यकता होती है । 20-25 ग्रा./8-10 वर्ग मी. के लिये पर्याप्त होते हैं ।


सिंचाई की आवश्यकता अधिकतर जायद व खरीफ दोनों के लिए अधिक करनी चाहिए अर्थात भूमि में नमी बनी रहनी चाहिए । ग्रीष्म ऋतु की फसल के लिये 5-6 दिन के बाद करते रहना चाहिए । वर्षा ऋतु में वर्षा के आधार पर पानी देना चाहिए । पहली सिंचाई बोने से 10-15 दिन के बाद करनी चाहिए ।


बगीचों में बीज बोते समय नमी कम है तो 5-6 दिन के बाद हल्का पानी देना चाहिए तथा बाद में आवश्यकता के अनुसार मिट्‌टी में नमी रहनी आवश्यक है ।


निराई-गुड़ाई (Hoeing)


सिंचाई के बाद लगभग 5-6 दिन के अन्तर से खेत में से घास व अन्य खरपतवार निकालना चाहिए तथा साथ-साथ थीनिंग भी कर देना चाहिए । इस समय किसी थामरे (Furrow) में बीजों का अंकुरण नहीं हुआ है तो अन्य थामरे से अधिक पौधों के होने पर खाली थामरे में पौधा लगाना चाहिए तथा ध्यान रहे कि उसी समय पानी लगाना चाहिए जिससे मुलायम जड़ें मिट्‌टी को पकड़ लें तथा थामरों की गुड़ाई समय पर करते रहना चाहिए । गुड़ाई के समय खुरपी आदि को ध्यान से चलाना चाहिए जिससे पौधों की जडें न कट पायें ।


फलों की तुड़ाई (Harvesting)


खीरे की तुड़ाई अधिकतर फलों के आकार तथा बाजार की मांग के ऊपर निर्भर करती है । फलों को अगेता तोड़कर बाजार में अधिक मूल्य पर बेचा जाता है । फलों को अधिक पकने से पहले ही तोड़ना चाहिए । कच्चे फलों को बाजार भेजने से अधिक मूल्य मिलता है । इस प्रकार से 3-4 दिन के बाद तुड़ाई करते रहना चाहिए । अधिक पके फलों को बेचने से अधिक बाजार मूल्य नहीं मिलता । यदि अधिक फलों के पक जाने पर उनको बीज के लिये खेत में पकाना चाहिए जिससे बीज की प्राप्ति हो सके ।


पैदावार (Yield)


खीरे की जायद की फसल की उपज सही देखभाल के पश्चात् 100-120 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त होती है । जबकि खरीफ की फसल की पैदावार अधिक होती है । इस प्रकार से खरीफ की फसल की पैदावार 14-16 क्विंटल प्रति हैक्टर की दर से प्राप्त होती है । बगीचों से भी समय पर फल मिलते रहते हैं । इस प्रकार से 15-20 कि.ग्रा. प्रति वर्ग मी. क्षेत्र से आसानी से प्राप्त हो जाते हैं ।


भंडारण (Storage)


खीरे को लगभग सभी जगह प्रयोग किया जाता है । फलों का प्रयोग अधिकतर बड़े-बड़े होटलों में सलाद के रूप में अधिक प्रयोग करते हैं । इसलिए इन फलों को लम्बे समय तक रोकना (Storage) पड़ता है । अत: यह गर्मी की फसल होने के कारण फलों को 10 डी०सेग्रेड तापमान पर स्टोर किया जा सकता है । स्टोर के लिये अच्छे, बड़े व कच्चे फलों को ही स्टोर करना चाहिए ।


बीमारियां (Diseases)


मुख्य बीमारियां निम्न हैं


(1) पाउडरी मिल्डयू (Powdery Mildew)- यह रोग फंगस द्वारा उत्पन्न होता है तथा रोग से पत्तियां व तना प्रभावित होते हैं । पत्तियों व तने पर सफेद रंग के पाउडर व धब्बे बन जाते हैं । पौधों को बचाने के लिए केराथेन एवं मोरेस्टान का 30-50 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से छिड़कना चाहिए तथा अन्य फंजीसाइड जैसे- बेवस्टीन (Bavistino), बेनलेट (Benlate) आदि का प्रयोग करना चाहिए । अन्य रोग-अवरोधी किस्म को बोना चाहिए ।


(2) डाउनी मिल्डयू (Downy Mildew)- इस रोग से पौधों की पत्तियों पर पीले व भूरे रंग के स्पोट बन जाते हैं तथा पत्तियों की निचली सतह पर भी धब्बे बन जाते हैं । इस रोग के नियन्त्रण के लिये कॉपर सल्फेट 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर का बुरकाव करना चाहिए तथा रोग न लगने वाली किस्मों को ही बोना चाहिए |


(3) मोजेक (Mosic)- यह रोग वायरस द्वारा लगता है । रोगी पौधों की वृद्धि रुक जाती है तथा बाद में पत्तियां पीली व मुड़ना शुरू हो जाती हैं । रोगी पौधों को उखाड़ देना चाहिए यदि अधिक आक्रमण होने लगे तो खेत में रोग-अवरोधी किस्म ही बोनी चाहिए ।


रोगों से खीरे के पौधों की सुरक्षा कैसे करें


(1) फ्रूट फ्लाई (Fruit Fly)- यह मक्खी की तरह फ्लाई होती है । पौधों पर लगे फलों व फूलों को क्षति होती है । नियन्त्रण के लिये अण्डे आदि को नष्ट करना चाहिए । मैलाथीन या निकोटिन सल्फेट का 0.1% का घोल बनाकर छिड़कना अति उत्तम पाया गया है ।


(2) लाल कीड़ा (Red Pumpkin Beetle)- यह कीट पौधों की मुलायम पत्तियों, फलों तथा फूलों को खाता है जिससे पैदावार कम हो जाती है । नियन्त्रण के लिये फसल पुर 10 प्रतिशत फेनवेल का बुरकाव करना चाहिए ।


(3) कट वार्मस (Cut Warms)- यह कीट फसल के लिये हानिकारक होते हैं जोकि दिन में भूमि में छिप जाते हैं तथा रात को फसल पर आक्रमण करते हैं । रोकथाम के लिये लिनडेन (Lindine) का बुरकाव लाभदायक सिद्ध हुआ है तथा बुवाई से पहले भी मिट्‌टी में लिनडेन (Lindine) मिलाकर बीज बोने चाहिए ।


(4) एफिडस (Aphids)- ये कीट बहुत छोटे होते हैं । जोकि पौधों के रस को चूसते हैं । यह पत्तियों की निचली सतह पर मिलता है । नियन्त्रण के लिए मेटासिस्टाक्स या मैलाथियान का 1% का स्प्रे करना चाहिए ।


सावधानी (Precautions)


यह फसल सलाद की मुख्य फसलों में से है । जो लगभग सभी प्रयोग करते हैं । अत: सभी को ध्यान रखना चाहिए कि रासायनिक दवाओं के प्रयोग के बाद फलों को ठीक प्रकार से धोकर, साफ कर लेना चाहिए । यदि सम्भव हो सके तो रासायनिक दवाओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये दवाएं जहरीली होती हैं जो कि मनुष्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती हैं ।